सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैंसला
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार द्वारा कांवड़ यात्रा मार्ग पर दुकान मालिकों के नाम और उनके कर्मचारियों के नाम स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने का आदेश दिया था, जिसके खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गई थीं। इन याचिकाओं में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा, अकादमिक डॉ. अपूर्वानंद झा और स्तंभकार आकर पटेल ने शामिल थे। इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया कि सरकार के ये निर्देश धर्म और जाति के आधार पर भेदभावपूर्ण थे और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते थे।
सरकार के निर्देश और याचिकाकर्ताओं की अपत्ति
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इन निर्देशों में दुकान मालिकों को अपने नाम और अपने कर्मचारियों के नाम कांवड़ यात्रा मार्ग पर स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने की आवश्यकता थी। लेकिन यह निर्देश भोजन वस्त्रों की सूची या वहां दी जाने वाली अन्य जानकारी नहीं मांगता था। इस प्रकार, ऐसा लग रहा था कि यह निर्देश केवल धार्मिक या जातीय पहचान को उजागर करने के उद्देश्य से तैयार किया गया था। याचिकाकर्ताओं ने इसे सामाजिक रूप से खतरनाक करार दिया और कहा कि यह आदेश धार्मिक और जातीय पहचान पर जोर देकर सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का कारण बन सकता है।
सोशल बॉयकॉट का खतरा
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि इन निर्देशों के कारण मुस्लिम दुकानदारों और श्रमिकों के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार और धार्मिक असहमति का खतरा बढ़ सकता है। दबाव में ये निर्देश धार्मिक पहचान का जबरन खुलासा करते हैं, जो समाज में साझा सह-अस्तित्व की भावना को बाधित करता है। यह एक प्रकार का आर्थिक हानि और सामाजिक बहिष्कार को प्रेरित करने वाला कदम हो सकता है जिसका उत्कृष्ट उदाहरण अन्य धर्मों के अनुयायियों द्वारा किए जाने वाले बहिष्कार और व्यवसाय को हानि पहुंचाने के रूप में देखा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की रुकावट
इन सबके ऊपर, सुप्रीम कोर्ट ने इन निर्देशों की वैधता पर सवाल उठाया और निर्देशों पर रोक लगाते हुए उन्हें अनुपालन से बाहर करने का निर्णय लिया। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने न्यायिक सक्रियता और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के प्रति एक महत्वपूर्ण संदेश भेजा है। अब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकार को इन निर्देशों के संबंध में आवश्यक सुधार और संविधान-सम्मत नीति लागू करने पर विचार करना होगा।
न्याय की अहमियत
यह मामला स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्षता पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी नजर और भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा को दर्शाता है। स्वाभाविक रूप से धार्मिक पहचान के छुपाव को बाध्यकारी बनाना किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा हो सकता है और इसे स्पष्ट रूप से संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 25 का उल्लंघन माना जा सकता है। हमारे समाज में धार्मिक विविधता का सम्मान और उसकी रक्षा करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
संक्षेप में, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ते खतरों के खिलाफ एक मजबूत संदेश दिया है। यह निर्णय दर्शाता है कि भारतीय न्यायिक प्रणाली मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा हेतु गंभीरता से काम कर रही है।
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